कुलदेवियो पर संकलन करना बहुत दुष्कर कार्य है जबकि सिर्फ़ *श्वेताम्बर जैन गोत्रो* का ही इकट्ठा करना है. उस पर भी किताब की रचना करना और फ़िर उसे बाजार मे बेचना ताकि अधिकतम घर तक पहुंचे बहुत कठिन है. तिस पर संकलन का कार्य निरन्तर चलता रहता है, नित्य नयी जानकारी अपडेट किताब मे नही हो सकता , इसलिए ब्लाग लेखन ही उपयुक्त लगा। पाठकगण कुलदेवियो पर जानकारी ईमेल पर भेज सकते है ताकि अपडेट किया सके :-
renikbafna@gmail.com
मोबाइल+वाट्सएप : 94063-00401
"अच्छी पुस्तकें जादुई कालीन की तरह होती है,वे आहिस्ते से हमें उस दुनिया की सैर कराती है जहाँ दूसरी चीज के जरिये हम प्रवेश नहीं कर सकते"
कुलदेवी पर लेख/सच्ची घटनाएं इस ब्लॉग पर पढ़े -
renikjain@blogspot.com ( In Search of TRUTH)
रेणिक बाफना तालाब के सामने चंगोरा भाटा रायपुर छत्तीसगढ़
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कुलदेवी परम्परा : KULDEVI PARAMPARA (Hindi)
रेणिक बाफना तालाब के सामने चंगोरा भाटा रायपुर छत्तीसगढ़
चित्र- श्री सच्चियाय माता,ओसियाँ , जोधपुर, राजस्थान
कुलदेव कुलदेवी परम्परा
(मेरी किताब जैन गोत्रो की कुलदेवी कुलदेवता का एक अंश )
हमारे पूर्वजो ने हजारों वर्षों से अपने वंश का कुलदेवता/ देवी निर्धारित कर रखा है , और पीढी दर पीढ़ी उसकी पूजा होती रही है, परन्तु यह परम्परा क्यों है? अध्यात्म का क्षेत्र जिज्ञासा का विषय भी है , भारतीय परम्परा में कार्य क्षेत्र के अनुसार उनके अधिष्ठाता देवी देवता होते है जैसे विद्या की देवी सरस्वती, चिकित्सा के देव धन्वन्तरी ,निर्माण के विश्वकर्मा,इत्यादि। इसके अलावा कुण्डली ज्योतिष के अनुसार कुछ अलग देवी देवता भी निर्धारित किये जाते है , जिन्हें इष्ट देव कहकर पुकारा जाता है , ये मित्र देव या अनुकूल देव होते है जो शीध्र प्रसन्न या सिद्ध किया हो जाते है. इसी परम्परा में हर क्षेत्र , नगर इत्यादि का भी एक अधिष्ठाता देव होता है. हर मांगलिक कार्य एवं शुभ कार्यो में इनकी उपासना सबसे पहले की जाती है. ताकि मूल पूजा कार्य सफल हो. इसके अलावा विभिन्न संकट निवारण हेतु अलग अलग देवी देवता की उपासना की परम्परा होती है. जैसे शनि देव , हनुमान , बगलामुखी ,गणेश, भैरव आदि।
इन सबमे सबसे महत्वपूर्ण कड़ी कुलदेवी या कुलदेवता होते है। कुलदेवी/देवता दरअसल कुल या वंश की रक्षक देवी देवता होते है. ये घर परिवार या वंश परम्परा की प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते है. सर्वाधिक आत्मीयता और श्रद्धा के अधिकारी इन देवो की स्थिति घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी महत्वपूर्ण होती है.अत: इनकी उपासना या महत्त्व दिए बगैर सारी पूजा एवं अन्य कार्य व्यर्थ हो सकते है. इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है की यदि ये रुष्ट हो जाए तो अन्य कोई देवी देवता दुष्प्रभाव या हानि कम नही कर सकता या रोक नही लगा सकता।
इसे यूं समझे- यदि घर का मुखिया पिताजी /माताजी आपसे नाराज हो तो पड़ोस के " अंकल जी " आपके भले के लिया आपके घर में प्रवेश नही कर सकते क्योकि वे "बाहरी " होते है।
मैंने अपने जीवन में ऐसे परिवार देखे है जो कुलदेव /देवी की उपेक्षा से दरिद्र हुए या जीवन भर कष्ट उठाते रहे.अत: आप महावीर स्वामी को माने या गौतम बुद्ध को , या फिर संतो को , साथ में में कुलदेवी/कुलदेवता को मानना आवश्यक है. कुलदेवी देवता की उपासना इष्ट देवी देवता की तरह रोजाना करना चाहिये, खासकर सांसारिक लोगो को !
अकसर कुलदेवी ,देवता और इष्ट देवी देवता एक ही हो सकते है ,
कुलदेव/देवी वो होते है जिनका पारिवारिक जुड़ाव पीढ़ी दर पीढ़ी होता है, जबकि इष्टदेव का मतलब वो देव/देवी जिस पर आपकी आस्था/श्रद्धा होती है किसी कारणवश, जैसे बजरंगबली, पद्मावती देवी आदि।
कुलदेवी/देवता की उपासना भी सहज और तामझाम से परे होती है.जैसे नियमित दीप व अगरबत्ती जलाकर देवो का नाम पुकारना या याद करना , विशिष्ट दिनों में विशेष पूजा
करना, घर में कोई पकवान आदि बनाए तो पहले उन्हें अर्पित करना फिर घर के
लोग खाए, हर मांगलिक कार्य या शुभ कार्य में उन्हें निमन्त्रण देना या
आज्ञा मांगकर कार्य करना आदि। इस कुल परम्परा की सबसे महत्वपूर्ण बात यह
है की यदि आपने अपना धर्म बदल लिया हो या इष्ट बदल लिया हो तब भी तब भी कुलदेवी देवता नही बदलेंगे
, क्योकि इनका सम्बन्ध आपके वंश परिवार से है . किन्तु धर्म या पंथ बदलने
सके साथ साथ यदि कुल देवी देवता का भी त्याग कर दिया तो जीवन में अनेक
कष्टों का सामना करना पद सकता है जैसे धन नाश , दरिद्रता, बीमारिया ,
दुर्घटना, गृह कलह, अकाल मौते आदि। वही इन उपास्य देवो की वजह से दुर्घटना
बीमारी आदि से सुरक्षा होते भी होते भी देखा गया है.
ऐसे अनेक परिवार भी मैंने देखा है जिन्हें अपने कुल देवी देवता के बारे में कुछ भी नही मालूम , उदाहरण के लिए ८ वी से १० वी शताब्दि में अनेक राजस्थानी मूल के लोग जैन पंथ में दीक्षित होकर जैन परम्परा को अपना लिए एवं जैन तिर्थंकरो की पूजा करने लगे तथा जैन सिद्ध संतो को मानने लगे , किन्तु कुलदेवी /देवता को भुला देने मात्र से वे हट नही जाते , वे अभी भी वही रहेंगे जो ८ वीं शताब्दी पूर्व से उनके पूर्वजो ने अपनाया था। इसी तरह धर्म परिवर्तन करके सिक्ख और इसाई बने लोगो पर भी यही सिद्धांत लागू होगा। (धर्म बदलने से आपके दादा परदादा नहीं बदलेंगे ). प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार जैनियों के लिये कुलदेवी देवता की प्रथम उपासना के बाद ही अन्य उपासना जैसे तीर्थंकर उपासना या दादागुरुदेव उपासना फलीभूत होगी। एक और बात ध्यान देने योग्य है- किसी महिला का विवाह होने के बाद ससुराल की कुलदेवी /देवता ही उसके उपास्य हो जायेंगे न की मायके के। इसी प्रकार कोई बालक किसी अन्य परिवार में गोद में चला जाए तो गोद किये परिवार के कुल देव उपास्य होंगे।
कुल परम्परा कैसे जाने ?-
अपने परिवार या गोत्र के बुजुर्गो से कुलदेवता।/देवी के बारे में जानकारी लेवें, यदि मालूम न हो तो यह जानने की कोशिश करे की झडूला / मुण्डन सस्कार आपके गोत्र परम्परानुसार कहा होता है , या "जात" कहा दी जाती है , या विवाह के बाद एक अंतिम फेरा (५,६,७ वां ) कहा होता है। हर गोत्र / धर्म के अनुसार भिन्नता होती है. सामान्यत: ये कर्म कुलदेवी/कुलदेवता के सामने होते है. और यही इनकी पहचान है. कुलदेव परम्परा भी लुप्तप्राय हो गयी है , जिन घरो में प्राय: कलह रहती है, वंशावली आगे नही बढ रही है (निर्वंशी हो रहे हों , आर्थिक उन्नति नही हो रही है , विकृत संताने हो रही हो अथवा अकाल मौते हो रही हो , उन परिवारों में विशेष ध्यान देना चाहिए। कभी कभी इस तरह के उत्पात पितृ देव / पितर के कारण भी होते है.
ऐसे अनेक परिवार भी मैंने देखा है जिन्हें अपने कुल देवी देवता के बारे में कुछ भी नही मालूम , उदाहरण के लिए ८ वी से १० वी शताब्दि में अनेक राजस्थानी मूल के लोग जैन पंथ में दीक्षित होकर जैन परम्परा को अपना लिए एवं जैन तिर्थंकरो की पूजा करने लगे तथा जैन सिद्ध संतो को मानने लगे , किन्तु कुलदेवी /देवता को भुला देने मात्र से वे हट नही जाते , वे अभी भी वही रहेंगे जो ८ वीं शताब्दी पूर्व से उनके पूर्वजो ने अपनाया था। इसी तरह धर्म परिवर्तन करके सिक्ख और इसाई बने लोगो पर भी यही सिद्धांत लागू होगा। (धर्म बदलने से आपके दादा परदादा नहीं बदलेंगे ). प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार जैनियों के लिये कुलदेवी देवता की प्रथम उपासना के बाद ही अन्य उपासना जैसे तीर्थंकर उपासना या दादागुरुदेव उपासना फलीभूत होगी। एक और बात ध्यान देने योग्य है- किसी महिला का विवाह होने के बाद ससुराल की कुलदेवी /देवता ही उसके उपास्य हो जायेंगे न की मायके के। इसी प्रकार कोई बालक किसी अन्य परिवार में गोद में चला जाए तो गोद किये परिवार के कुल देव उपास्य होंगे।
कुल परम्परा कैसे जाने ?-
अपने परिवार या गोत्र के बुजुर्गो से कुलदेवता।/देवी के बारे में जानकारी लेवें, यदि मालूम न हो तो यह जानने की कोशिश करे की झडूला / मुण्डन सस्कार आपके गोत्र परम्परानुसार कहा होता है , या "जात" कहा दी जाती है , या विवाह के बाद एक अंतिम फेरा (५,६,७ वां ) कहा होता है। हर गोत्र / धर्म के अनुसार भिन्नता होती है. सामान्यत: ये कर्म कुलदेवी/कुलदेवता के सामने होते है. और यही इनकी पहचान है. कुलदेव परम्परा भी लुप्तप्राय हो गयी है , जिन घरो में प्राय: कलह रहती है, वंशावली आगे नही बढ रही है (निर्वंशी हो रहे हों , आर्थिक उन्नति नही हो रही है , विकृत संताने हो रही हो अथवा अकाल मौते हो रही हो , उन परिवारों में विशेष ध्यान देना चाहिए। कभी कभी इस तरह के उत्पात पितृ देव / पितर के कारण भी होते है.
गुरु रहस्य
आध्यात्म में दो पद्धति सुनी जाती है - एक गुरुमार्गी दूसरा मंदिर मार्गी
, दोनों में क्या भेद है ? मंदिर मार्गी या मूर्तिपूजक एक मंदिर में
बैठकर अपनी इच्छित मूर्ति बैठाकर उसे ईश्वर मानकर उसमे ध्यान लगाता है.
उसकी पूजा करता है. परन्तु धीरे धीरे भिन्न २ प्रकार ढकोसलो के जुडने से
कुछ गुरुओ ने भौतिक साधनों (मूर्ति वगैरह )की बजाय गुरु को ही माध्यम मानकर
उपासना करने पर जोर देने लगे (निराकार उपासना )। पर कलयुग में धंधे बाजो
ने गुरु शब्द का व्यवसायीकरण कर दिया। स्वयं को महान गुरु तथा खुद को ईश्वर
घोषित कर या स्वयं को भगवान घोषित कर खुद की उपासना करवाने लगे। लोग भी
अंधाधुन्ध इन्ही गुरुओ के पीछे भागने लगे पागलो की तरह।इसकी आड़ में ठगी और
गलत कार्य भी होने लगे , फिर ठगे जाने पर आस्था भी ख़त्म होने लगी।